रात दर्जिन थी कोई सीती थी दिन के पैरहन के फटे हिस्से... वो जाने कैसा लम्हा था धागे उलझ गए सारे सुइयाँ भी गिरकर खो गईं दिन का लिबास उधड़ा ही रहेगा अब...
हिंदी समय में प्रतिभा कटियार की रचनाएँ